पंडित स्वामी रामानन्द जी एक विद्वान पुरुष थे। वेदों व गीता जी के मर्मज्ञ ज्ञाता माने जाते थे।
जिस समय कबीर परमेश्वर (कविर्देव) अपने लीलामय शरीर में पाँच वर्ष के हो गए तब गुरु मर्यादा बनाए रखने के लिए लीला की। अढ़ाई वर्ष की आयु के बच्चे का रूप धारण करके सुबह-सुबह अंधेरे में पंचगंगा घाट की पौडि़यों के ऊपर लेट गए, जहाँ पर स्वामी रामानन्द जी प्रतिदिन स्नानार्थ जाया करते थे। श्री रामानन्द जी चारों वेदों के ज्ञाता और पवित्रा गीता जी के विद्वान माने जाते थे। स्वामी रामानन्द जी की आयु 104 वर्ष की हो चुकी थी। काशी में जो पाखण्ड पूजा दूसरे पण्डितों ने चला रखी थी वह बंद करवा दी थी। रामानन्द जी शास्त्रा अनुकूल साधना बताया करते थे और पूरी काशी में अपने बावन दरबार लगाया करते थे। रामानन्द जी पवित्रा गीता जी व पवित्र वेदों के आधार पर विधिवत् साधना बताते थे। ओ3म् नाम का जाप उपदेश देते थे।
उस दिन भी जब स्नान करने के लिए पंचगंगा घाट पर गए तो पौडि़यों पर कबीर साहेब लेटे हुए थे। सुबह ब्रह्ममूहूर्त के अंधेरे में स्वामी रामानन्द जी को कबीर साहेब दिखाई नहीं दिए। कबीर साहेब के सिर में रामानन्द जी के पैर की खड़ाऊ लग गई। कविर्देव ने जैसे बालक रोते हैं ऐसे रोना शुरु कर दिया। रामानन्द जी तेजी से झुके और देखा कि कहीं बालक को चोट तो नहीं लग गई तथा प्यार से उठाया। उसी समय रामानन्द जी के गले की कण्ठी (माला) निकल कर परमेश्वर कविर्देव के गले में डल गई। रामानन्द जी ने कहा कि बेटा राम - राम बोलो। राम के नाम से दुःख दूर हो जाते हैं, पुत्र राम - राम बोलो, कबीर साहेब के सिर पर हाथ रखा। शिशु रूप में कबीर साहेब चुप हो गए। फिर रामानन्द जी स्नान करने लग गए और सोचा कि बच्चे को आश्रम में ले चलूँगा। जिसका होगा उसके पास भिजवा दूँगा। रामानन्द जी ने स्नान करके देखा तो बच्चा वहाँ पर नहीं है। कबीर साहेब वहाँ से अंतध्र्यान हुए और अपनी झोपड़ी में आ गए। रामानन्द जी ने सोचा कि बच्चा था चला गया होगा, अब उसको कहाँ ढूंढूं?।
एक दिन स्वामी रामानन्द जी का कोई शिष्य कहीं पर सत्संग कर रहा था। कबीर साहेब वहाँ पर चले गए। वह ऋषि जी श्री विष्णु पुराण की कथा सुना रहा था। वह कह रहा था कि भगवान विष्णु जी सारी सृष्टी के रचनहार हैं, यही पालनकर्ता हैं, यही राम और कृष्ण रूप में अवतार आने वाली परम शक्ति हैं, अजन्मा हैं, श्री विष्णु जी के कोई माता-पिता नहीं हैं। कविरीश्वर ने यह सारी चर्चा सुनी। सत्संग के उपरान्त कबीर परमेश्वर ने कहा ऋषि जी क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूँ? ऋषि जी ने कहा कि हाँ बेटा! पूछो। वहाँ सैकड़ों की संख्या में भक्तजन उपस्थित थे। कविर्देव ने कहा कि आप विष्णु पुराण से सत्संग सुना रहे थे कि श्री विष्णु जी परमशक्ति है, इन्हीं से ब्रह्मा और शिव की उत्पत्ति हुई है। ऋषि जी ने कहा कि मैं जो सुनाता हूँ, विष्णु पुराण में ऐसा ही लिखा हुआ है। कबीर साहेब ने कहा कि ऋषि जी मैंने तो आपसे संशय निवारण के लिए प्रार्थना की है आप क्षुब्ध मत होईये। एक दिन मैंने शिवपुराण सुना था। उसमें वह महापुरुष सुना रहे थे कि भगवान शिव से विष्णु और ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई (प्रमाण पवित्रा शिव पुराण, रूद्र संहिता, अध्याय 6 तथा 7 में, गीता प्रैस गोरख पुर से प्रकाशित) देवी भागवत के तीसरे स्कंद में लिखा है कि देवी इन तीनों ब्रह्मा-विष्णु- शिव की माँ है। ये तीनों नाशवान हैं, अविनाशी नहीं हैं। ऋषि जी निरूतर हो गए। क्रोधित होकर बोला तू कौन है ? किसका पुत्रा है ? कबीर साहेब से पहले ही दूसरे भक्तजन कहने लगे कि यह तो नीरु जुलाहे का पुत्रा है। स्वामी रामानन्द जी का शिष्य कहने लगा कि तूने गले में कण्ठी कैसे डाल रखी है ? (वैष्णु साधू तुलसी की एक मणिये की माला गले में डालते हैं, उससे यह प्रमाणित होता है कि इन्होंने विष्णु परंपरा से उपदेश ले रखा है।) तेरा गुरुदेव कौन है? कबीर साहेब ने कहा कि मेरे गुरुदेव वही हैं जो आपके गुरुदेव हैं। वह ऋषि बहुत क्रोधित हो गया तथा बोला कि रे नादान ! तू अछूत जुलाहे का बच्चा और मेरे गुरुदेव को अपना गुरुदेव बताता है। मेरे गुरुदेव का पता है कौन हैं ? श्री श्री 1008 पंडित रामानन्द जी आचार्य। तू जुलाहे का बालक, वे तो तेरे जैसे अछूतों के दर्शन भी नहीं करते और तू कह रहा है कि मैंने उनसे नाम लिया है। देख लो भाई भक्तजनों यह झूठा, कपटी है। अभी गुरुदेव के पास जाऊँगा और उनको तेरी सारी कहानी बताऊँगा। तू छोटी जाति का बच्चा हमारे गुरुदेव की बेइज्जती करता है। कविरग्नि बोले कि ठीक है गुरुदेव जी को बताओ। उस ऋषि ने जाकर श्री रामानन्द जी को बताया कि गुरुदेव एक जुलाहे जाति का लड़का है। उसने तो हमारी नाक काट दी। वह कहता है कि स्वामी रामानन्द जी मेरे गुरुदेव हैं। हे भगवन् ! हमारा तो बाहर निकलना दुःभर हो गया। स्वामी रामानन्द जी बोले कि कल सुबह उसको बुला कर लाओ। कल देखना तुम्हारे सामने मैं उसको कितना दण्ड दूँगा।
अगले दिन सुबह-सुबह कबीर साहेब को दस नादान व्यक्तियों ने पकड़ कर श्री रामानन्द जी के सामने उपस्थित कर दिया। रामानन्द जी ने यह दिखाने के लिए कि मैं कभी छोटी जाति वालों के दर्शन भी नहीं करता, यह झूठ बोल रहा था कि इसने मेरे से दीक्षा ली है, आगे पर्दा लगा लिया। रामानन्द जी ने पर्दे के पीछे से पूछा कि तू कौन है और तेरी क्या जाति है? तेरा कौन सा पंथ है, अर्थात् किस परमात्मा की पूजा
रामानंद अधिकार सुनि, जुलहा अक जगदीश। दास गरीब बिलंब ना, ताहि नवावत शीश।।407।।
रामानंद कूं गुरु कहै, तनसैं नहीं मिलात। दास गरीब दर्शन भये, पैडे लगी जुं लात।।408।।
पंथ चलत ठोकर लगी, रामनाम कहि दीन। दास गरीब कसर नहीं, सीख लई प्रबीन।।409।।
आडा पडदा लाय करि, रामानंद बूझंत। दास गरीब कुलंग छबि, अधर डाक कूदंत।।410।।
कौन जाति कुल पंथ है, कौन तुम्हारा नाम। दास गरीब अधीन गति, बोलत है बलि जांव।।411।।
उत्तर कबीर जी का:-
जाति हमारी जगतगुरु, परमेश्वर पद पंथ। दास गरीब लिखति परै, नाम निंरजन कंत।।412।।
रामानन्द जी बोले:-
रे बालक सुन दुर्बद्धि, घट मठ तन आकार। दास गरीब दरद लग्या, हो बोले सिरजनहार।।413।।
तुम मोमन के पालवा, जुलहै के घर बास। दास गरीब अज्ञान गति, एता दृढ़ विश्वास।।414।।
मान बडाई छांडि करि, बोलौ बालक बैंन। दास गरीब अधम मुखी, एता तुम घट फैंन।।415।।
तर्क तलूसैं बोलतै, रामानंद सुर ज्ञान। दास गरीब कुजाति है, आखर नीच निदान।।423।।
परमेश्वर कबीर जी (कविर्देव) ने प्रेमपूर्वक उत्तर दिया -
महके बदन खुलास कर, सुनि स्वामी प्रबीन। दास गरीब मनी मरै, मैं आजिज आधीन।।428।।
मैं अविगत गति सैं परै, च्यारि बेद सैं दूर। दास गरीब दशौं दिशा, सकल सिंध भरपूर।।429।।
सकल सिंध भरपूर हूँ, खालिक हमरा नाम। दासगरीब अजाति हूँ, तैं जूं कह्या बलि जांव।।430।।
जाति पाति मेरे नहीं, नहीं बस्ती नहीं गाम। दासगरीब अनिन गति, नहीं हमारे नाम।।431।।
नाद बिंद मेरे नहीं, नहीं गुदा नहीं गात। दासगरीब शब्द सजा, नहीं किसी का साथ।।432।।
सब संगी बिछरू नहीं, आदि अंत बहु जांहि। दासगरीब सकल वंसु, बाहर भीतर माँहि।।433।।
ए स्वामी सृष्टा मैं, सृष्टी हमारै तीर। दास गरीब अधर बसूं, अविगत सत्य कबीर।।434।।
पौहमी धरणि आकाश मैं, मैं व्यापक सब ठौर। दास गरीब न दूसरा, हम समतुल नहीं और।।436।।
हम दासन के दास हैं, करता पुरुष करीम। दासगरीब अवधूत हम, हम ब्रह्मचारी सीम।।439।।
सुनि रामानंद राम हम, मैं बावन नरसिंह। दास गरीब कली कली, हमहीं से कृष्ण अभंग।।440।।
हमहीं से इंद्र कुबेर हैं, ब्रह्मा बिष्णु महेश। दास गरीब धरम ध्वजा, धरणि रसातल शेष।।447।।
सुनि स्वामी सति भाखहूँ, झूठ न हमरै रिंच। दास गरीब हम रूप बिन, और सकल प्रपंच।।453।।
गोता लाऊं स्वर्ग सैं, फिरि पैठूं पाताल। गरीबदास ढूंढत फिरूं, हीरे माणिक लाल।।476।।
इस दरिया कंकर बहुत, लाल कहीं कहीं ठाव। गरीबदास माणिक चुगैं, हम मुरजीवा नांव।।477।।
मुरजीवा माणिक चुगैं, कंकर पत्थर डारि। दास गरीब डोरी अगम, उतरो शब्द अधार।।478।।
यदि मेरी जाति पूछ रहे हो तो मैं जगतगुरु हूँ (वेदों में लिखा है कि जगतगुरु, सारी सृष्टी को ज्ञान प्रदान करने वाले कबीर प्रभु हैं) मेरा पंथ क्या है? (किस परमेश्वर का मैं मार्ग दर्शन करता हूँ?) इसके उत्तर में कबीर जी ने कहा मेरा परमेश्वर पंथ है। ईश, ईश्वर, परमेश्वर (ब्रह्म, परब्रह्म, पूर्णब्रह्म तथा क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष, परम अक्षर पुरुष) मैं उस सर्चोच्च शक्ति (सुप्रीम पावर) परमेश्वर का मार्ग दर्शन करने आया हूँ, जो अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड के रचयिता और धारण-पोषण करने वाले हैं। वेदों में जिसको कविर्देव, कविरग्नि आदि नामों से सम्बोधित किया है।
ईश व क्षर पुरूष तो ब्रह्म को कहा जाता है जो केवल इक्कीश ब्रह्मण्ड का स्वामी है परब्रह्म व अक्षर पुरूष को ईश्वर कहा जाता है जो सात शंख ब्रह्मण्डों का स्वामी है तथा परम अक्षर पुरूष को पूर्ण ब्रह्म व परमेश्वर कहा जाता है जो असंख ब्रह्मण्डों का स्वामी है अर्थात् कुल का मालिक है और इसलिए कबीर जी ने स्वामी रामानंद जी से कहा कि मेरा पंथ परमेश्वर की प्राप्ति वाला है।
गीता अ. 15 श्लोक नं. 17 में लिखा है कि वास्तव में अविनाशी परमेश्वर तो कोई और ही है और वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है और वही अविनाशी परमात्मा परमेश्वर इस नाम से जाना जाता है। वह परमेश्वर मैं ही हूँ। इस बात को सुनकर स्वामी रामानन्द जी बहुत क्षुब्ध हो गए तथा कहा कि रे निकम्मे! तू छोटी जाति का और छोटा मुँह बड़ी बात। तू अपने आप भगवान बन बैठा। बुरी गालियाँ भी दी। कबीर साहेब बोले हे गुरुदेव! आप मेरे गुरुजी हैं। आप मुझे गाली दे रहे हो तो भी मुझे आनन्द आ रहा है। लेकिन मैं जो आपको कह रहा हूँ, मैं ज्यों का त्यों पूर्णब्रह्म ही हूँ, इसमें कोई संशय नहीं है। इस बात को सुनकर रामानन्द जी ने कहा कि ठहर जा तेरी तो लम्बी कहानी बनेगी, तू ऐसे नहीं मानेगा। मैं पहले अपनी पूजा कर लेता हूँ। रामानन्द जी ने कहा कि इसको बैठाओ मैं पहले अपनी कुछ क्रिया रहती है वह कर लेता हूँ, बाद में इससे निपटूंगा। स्वामी रामानन्द जी क्या क्रिया करते थे? भगवान विष्णु जी की एक काल्पनिक मूर्ति बनाते थे। सामने मूर्ति दिखाई देने लग जाती थी (जैसे कर्मकाण्ड करते हैं, भगवान की मूर्ति के पहले वाले सारे कपड़े उतार कर, उनको जल से स्नान करवा कर, फिर स्वच्छ कपड़े भगवान ठाकुर को पहना कर गले में माला डालकर, तिलक लगा कर मुकुट रख देते हैं।) रामानन्द जी कल्पना कर रहे थे। कल्पना करके भगवान की काल्पनिक मूर्ति बनाई। श्रद्धा से जैसे नंगे पैरों जाकर आप ही गंगा जल लाए हों, ऐसी अपनी भावना बना कर ठाकुर जी की मूर्ति के कपड़े उतारे, फिर स्नान करवाया तथा नए वस्त्रा पहना दिए। तिलक लगा दिया, मुकुट रख दिया और माला 1⁄4कण्ठी1⁄2 डालनी भूल गए। यदि कण्ठी न डाले तो पूजा अधूरी और मुकुट रख दिया तो पुनः उसे उतारा नहीं जा सकता। यदि उसी दिन मुकुट उतार दे तो पूजा खण्डित मानी जाती है। स्वामी रामानन्द जी अपने आप को कोस रहे हैं कि इतना जीवन हो गया मेरा कभी, भी ऐसी गलती जिन्दगी में नहीं बनी थी। प्रभु आज क्या गलती बन गई मुझ पापी से? यदि मुकुट उतारूँ तो पूजा खण्डित। उसने सोचा कि चल मुकुट के ऊपर से कण्ठी (माला) डाल कर देखता हूँ (कल्पना से कर रहे हैं कोई सामने मूर्ति नहीं है और पर्दा लगा है कबीर साहेब दूसरी तरफ बैठे हैं)। मुकुट में माला फँस गई आगे नहीं जा रही थी। तब रामानन्द जी ने सोचा अब क्या करूं? हे भगवन्! आज तो मेरा सारा दिन ही व्यर्थ गया। आज की मेरी भक्ति कमाई व्यर्थ गई (क्योंकि जिसको परमात्मा की कसक होती है उसका एक नित्य नियम भी रह जाए तो उसको दर्द बहुत होता है। जैसे इंसान की जेब कट जाए और फिर बहुत पश्चाताप करता है। ऐसे ही प्रभु के सच्चे भक्तों को इतनी लगन होती है।) इतने में कबीर साहेब ने कहा कि स्वामी जी माला की घुण्डी खोलो और गले में डाल दो। फिर गाँठ लगा दो, मुकुट उतारना नहीं पड़ेगा। अब रामानन्द जी काहे के मुकुट उतारे था, काहे की गाँठ खोले था। कुटिया के सामने लगा पर्दा भी स्वामी रामानन्द जी ने अपने हाथ से फैंक दिया और सारे ब्राह्मण समाज के सामने उस कबीर परमेश्वर को सीने से लगा लिया। रामानन्द जी ने कहा कि हे भगवन! आपका तो इतना कोमल शरीर है जैसे रूई हो और मेरा तो पत्थर जैसा शरीर है। एक तरफ तो प्रभु खड़े हैं और एक तरफ जाति व धर्म की दीवार है। प्रभु चाहने वाली पुण्यात्माऐं धर्म की बनावटी दीवार को तोड़ना श्रेयकर समझते हैं। वैसा ही स्वामी रामानन्द जी ने किया। सामने पूर्ण परमात्मा को पा कर न जाति देखी न धर्म देखा, न छुआ-छात, केवल आत्म कल्याण देखा। इसे ब्राह्मण कहते हैं।
बोलत रामानंदजी, हम घर बडा सुकाल। गरीबदास पूजा करैं, मुकुट फही जदि माल।।479।।
सेवा करौं संभाल करि, सुनि स्वामी सुर ज्ञान।गरीबदास शिर मुकुट धरि,माला अटकी जान।।480।।
स्वामी घुंडी खोलि करि, फिरि माला गल डार। गरीबदास इस भजन कूं, जानत है करतार।।481।।
ड्यौढी पडदा दूरि करि, लीया कंठ लगाय। गरीबदास गुजरी बौहत, बदनैं बदन मिलाय।।482।।
स्वामी रामानन्द जी ने कहा हे कबीर प्रभु! आपने झूठ क्यों बोला? कबीर साहेब बोले कि कैसा झूठ स्वामी जी? स्वामी रामानन्द जी ने कहा कि आप कह रहे थे कि आपने मेरे से नाम ले रखा है। आपने मेरे से उपदेश कब लिया? कबीर साहेब बोले एक समय आप स्नान करने के लिए पँचगंगा घाट पर गए थे। मैं वहाँ लेटा हुआ था। आपके पैरों की खड़ाऊ मेरे सिर में लगी थी तो आपने कहा था कि बेटा राम नाम बोलो। रामानन्द जी बोले-हाँ, अब कुछ याद आया। परन्तु वह तो बहुत छोटा बच्चा था (क्योंकि उस समय पाँच वर्ष की आयु के बच्चे बहुत बड़े हो जाया करते थे तथा पाँच वर्ष के बच्चे के शरीर तथा ढ़ाई वर्ष के बच्चे के शरीर में दुगूना अन्तर हो जाता है)।
कबीर साहेब कहने लगे कि स्वामी जी देखो, मैं ऐसा था। स्वामी रामानन्द जी के सामने भी खड़े हैं और एक ढाई वर्षीय बच्चे का दूसरा रूप बना कर किसी सेवक की वहाँ पर खटिया बिछी थी उसके ऊपर विराजमान हो गए। अब रामानन्द जी ने छः बार तो उधर देखा और छः बार उधर देखा। फिर आँखें मलमल कर देखा कि कहीं तेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं। इस प्रकार देख ही रहे थे कि इतने में कबीर साहेब का छोटे वाला रूप उठा और कबीर साहेब के बड़े पाँच वर्ष वाले स्वरूप में समा गया। पाँच वर्ष वाले स्वरूप में कबीर साहेब रह गए।
मनकी पूजा तुम लखी, मुकुट माल परबेश। गरीबदास गति को लखै, कौन वरण क्या भेष।।483।।
यह तौ तुम शिक्षा दई, मानि लई मनमोर। गरीबदास कोमल पुरूष, हमरा बदन कठोर।।484।।
तब रामानन्द जी बोले कि मेरा संशय मिट गया। हे परमेश्वर! आप को कैसे पहचान सकते हैं। आप किस जाति में तथा वेश भूषा में खड़े हो। हम नादान प्राणी आप के साथ वाद-विवाद करके दोषी हो गए, क्षमा करना पूर्ण परमेश्वर कविर्देव, मैं आप का अनजान बच्चा हूँ।
सुनि बच्चा मैं स्वर्ग की कैसैं छांडौं रीति। गरीबदास गुदरी लगी, जनम जात है बीत।।486।।
च्यारि मुक्ति बैकुंठ मैं, जिन की मोरै चाह। गरीबदास घर अगम की, कैसैं पाऊं थाह।।487।।
हेम रूप जहाँ धरणि है, रतन जडे बौह शोभ। गरीबदास बैकुंठ कूं, तन मन हमरा लोभ।।488।।
शंख चक्र गदा पदम हैं, मोहन मदन मुरारि। गरीबदास मुरली बजै, सुरगलोक दरबारि।।489।।
दूधौं की नदियां बगैं, सेत वृक्ष सुभान। गरीबदास मंदल मुक्ति, सुरगापुर अस्थान।।490।।
रतन जडाऊ मनुष्य हैं, गण गंधर्व सब देव। गरीबदास उस धाम की कैसैं छाडूं सेव।।491।।
ऋग युज साम अथर्वणं, गावैं चारौं वेद। गरीबदास घर अगम की, कैसैं जानो भेद।।492।।
च्यारि मुक्ति चितवन लगी, कैसैं बंचूं ताहि। गरीबदास गुप्तारगति, हमकूं द्यौ समझाय।।493।।
सुरग लोक बैकुंठ है, यासैं परै न और। गरीबदास षट्शास्त्रा, च्यारि बेदकी दौर।।494।।
च्यारि बेद गावैं तिसैं, सुरनर मुनि मिलाप। गरीबदास धु्रव पोर जिस, मिटि गये तीनूं ताप।।495।।
प्रहलाद गये तिस लोककूं, सुरगा पुरी समूल। गरीबदास हरि भक्ति की, मैं बंचत हूँ धूल।।496।।
बिंद्रावन गये तिस लोककूं, सुरगा पुरी समूल। गरीबदास उस मुक्ति कूं, कैसैं जाऊं भूल।।497।।
नारद ब्रह्मा तिस रटैं, गावैं शेष गणेश। गरीबदास बैकुंठ सैं, और परै को देश।।498।।
सहंस अठासी जिस जपैं, और तेतीसौं सेव। गरीबदास जासैं परै, और कौन है देव।।499।।
सुनि स्वामी निज मूल गति, कहि समझाऊं तोहि।गरीबदास भगवान कूं, राख्या जगत समोहि।।500।।
तीनि लोक के जीव सब, विषय वास भरमाय। गरीबदास हमकूं जपैं, तिसकूं धाम दिखाय।।501।।
जो देखैगा धाम कूं, सो जानत है मुझ। गरीबदास तोसैं कहंू, सुनि गायत्राी गुझ।।502।।
कृष्ण विष्णु भगवान कूं, जहडायंे हैं जीव। गरीबदास त्रिलोक मैं ,काल कर्म शिर शीव।।503।।
सुनि स्वामी तोसैं कहूँ, अगम दीप की सैल। गरीबदास पूठे परे, पुस्तक लादे बैल।।504।।
पौहमी धरणि अकाश थंभ, चलसी चंदर सूर। गरीबदास रज बिरजकी, कहाँ रहैगी धूर।।505।।
तारायण त्रिलोक सब, चलसी इन्द्र कुबेर। गरीबदास सब जात हैं, सुरग पाताल सुमेर।।506।।
च्यारि मुक्ति बैकुठ बट, फना हुआ कई बार। गरीबदास अलप रूप मघ, क्या जानैं संसार।।507।।
कहौ स्वामी कित रहौगे, चैदा भुवन बिहंड। गरीबदास बीजक कह्या, चलत प्राण और पिंड।।508।।
सुन स्वामी एक शक्ति है, अरधंगी ¬कार। गरीबदास बीजक तहां, अनंत लोक सिंघार।।509।।
जैसेका तैसा रहै, परलो फना प्रान। गरीबदास उस शक्तिकूं, बार बार कुरबांन।।510।।
कोटि इन्द्र ब्रह्मा जहाँ, कोटि कृष्ण कैलास। गरीबदास शिव कोटि हैं, करौ कौंनकी आश।।511।।
कोटि विष्णु जहाँ बसत हैं, उस शक्ति के धाम।गरीबदास गुल बौहत हैं,अलफ बस्त निहकाम।।512।।
शिव शक्ति जासै हुए, अनंत कोटि अवतार। गरीबदास उस अलफकूं, लखै सो होय करतार।।513।।
अलफ हमारा रूप है, दम देही नहीं दंत। गरीबदास गुलसैं परै, चलना है बिन पंथ।।514।।
बिना पंथ उस कंतकै, धाम चलन है मोर। गरीबदास गति ना किसी, संख सुरग पर डोर।।515।।
संख सुरगपर हम बसैं,सुनि स्वामी यह सैंन।गरीबदास हम अलफ हैं,यौह गुल फोकट फैंन।।516।।
जो तै कहया सौ मैं लहया, बिन देखै नहीं धीज।गरीबदास स्वामी कहै,कहाँ अलफ वौ बीज।।517।।
अनंत कोटि ब्रह्मांड फण, अनंत कोटि उदगार। गरीबदास स्वामी कहै, कहां अलफ दीदार।।518।।
हद बेहद कहीं ना कहीं, ना कहीं थरपी ठौर। गरीबदास निज ब्रह्मकी, कौंन धाम वह पौर।।519।।
चल स्वामी सर पर चलैं, गंग तीर सुन ज्ञान। गरीबदास बैकुंठ बट, कोटि कोटि घट ध्यान।।520।।
तहां कोटि वैकुंठ हैं, नक सरवर संगीत। गरीबदास स्वामी सुनैं, जात अनन्त जुग बीत।521।।
प्राण पिंड पुरमैं धसौ, गये रामानंद कोटि। गरीबदास सर सुरगमैं, रहौ शब्दकी ओट।।522।।
तहां वहाँ चित चक्रित भया, देखि फजल दरबार। गरीबदास सिजदा किया, हम पाये दीदार।।523।।
तुम स्वामी मैं बाल बुद्धि, भर्म कर्म किये नाश। गरीबदास निज ब्रह्म तुम, हमरै दृढ़ विश्वास।।524।।
सुन्न-बेसुन्न सैं तुम परै, उरैं से हमरै तीर। गरीबदास सरबंगमैं, अविगत पुरूष कबीर।।525।।
कोटि कोटि सिजदे करैं, कोटि कोटि प्रणाम। गरीबदास अनहद अधर, हम परसैं तुम धाम।।526।।
सुनि स्वामी एक गल गुझ,तिल तारी पल जोरि।गरीबदास सर गगन मैं,सूरज अनंत करोरि।।527।।
शहर अमान अनन्तपुर, रिमझिम रिमझिम होय।गरीबदास उस नगर का,मरम न जानैं कोय।।528।।
सुनि स्वामी कैसैं लखौ, कहि समझाऊं तोहि।गरीबदास बिन पर उडैं,तन मन शीश न होय।।529।।
रवनपुरी एक चक्र है, तहाँ धनजय बाय। गरीबदास जीते जन्म, याकूँ लेत समाय।।530।।
आसन पदम लगायकर, भिरंग नाद को खैंचि। गरीबदास अचवन करै, देवदत्त को ऐचि।।531।।
काली ऊन कुलीन रंग, जाकै दो फुन धार। गरीबदास कुरंभ शिर, तास करे उद्गार।।532।।
चिश्में लाल गुलाल रंग, तीनि गिरह नभ पंेच। गरीबदास वह नागनी कूँ, हौने न देवे रेच।।533।।
कुंभक रेचक सब करै, ऊन करत उदगार। गरीबदास उस नागनी कूँ, जीतै कोई खिलार।।534।।
कुंभ भरै रेचक करै, फिर टुटत है पौन। गरीबदास गगन मण्डल, नहीं होत है रौन।। 535।।
आगे घाटी बंद है, ईग्लंा-पिंगला दोय। गरीबदास सुषमन खुले, तास मिलावा होय।।536।।
ज्यूंका त्यूंही बैठि रहो, तजि आसन सब जोग। गरीबदास पल बीच पद, सर्व सैल सब भोग।।547।।
कोटि कोटि बैकुंठ हैं, कोटि कोटि शिव शेष। गरीबदास उस धाममैं, ब्रह्मा कोटि नरेश।।553।।
अवादान अमानपुर, चलि स्वामी तहां चाल। गरीबदास परलो अनंत, बौहरि न झंपै काल।।554।।
अमर चीर तहां पहरि है,अमर हंस सुख धाम।गरीबदास भोजन अजर,चल स्वामी निजधाम।।555।।
बोलत रामानंदजी, सुन कबीर करतार। गरीबदास सब रूपमैं, तुमहीं बोलन हार।।556।।
तुम साहिब तुम संत हौ, तुम सतगुरु तुम हंस। गरीबदास तुम रूप बिन और न दूजा अंस।।557।।
मैं भगता मुक्ता भया, किया कर्म कुन्द नाश। गरीबदास अविगत मिले, मेटी मन की बास।।558।।
दोहूँ ठौर है एक तूं, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणैं, उतरे हैं मघ जोय।।559।।
गोष्टी रामानंदसैं, काशी नगर मंझार। गरीबदास जिंद पीरके, हम पाये दीदार।।562।।
बोलै रामानंद जी, सुनौं कबीर सुभांन। गरीबदास मुक्ता भये, उधरे पिंड अरु प्राण।।567।।
कबीर साहेब (कविर्देव) ने स्वामी रामानन्द जी से पूछा कि स्वामी जी आप क्या पूजा करते हो? स्वामी रामानन्द जी ने कहा कि मैं वेदों व गीता जी के अनुसार साधना करता हूँ। कबीर साहेब ने पूछा कि वेदों व गीता के आधार से साधना करके किस लोक में जाओगे ? स्वामी रामानन्द जी ने कहा स्वर्ग में जाऊँगा। कबीर परमेश्वर ने पूछा स्वर्ग में क्या करोगे दाता? रामानन्द जी ने कहा कि वहाँ पर बहुत प्यारे भगवान विष्णु जी हैं। उनके दर्शन किया करूँगा और वहाँ पर दूधों की नदी है, वहाँ कोई चिंता नहीं है, कोई फिक्र नहीं है, मैं वहाँ आनन्द से रहूँगा। कबीर परमेश्वर ने पूछा कि स्वामी जी कितने दिन रहोगे स्वर्ग में ? (विद्वान पुरुष थे उनको ज्ञान था। दो ही मिनट में समझ गए।)
स्वामी जी बोले मेरी जितनी भक्ति की कमाई होगी तब तक रहूँगा। कबीर साहेब ने पूछा कि फिर कहाँ जाओगे ? रामानन्द जी ने कहा न जाने कर्माधार पर कहाँ तथा किस योनी में जन्म होगा? कबीर साहेब ने कहा कि यह साधना तो स्वामी जी आपने असंख्यों बार की है। इससे जीव मुक्त नहीं हो सकता। आप श्री विष्णु जी की साधना करके स्वर्ग लोक में जाना चाहते हो। जो साधक ब्रह्म साधना करके ब्रह्मलोक में जाते हैं वे भी जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रहते हैं क्योंकि एक दिन महास्वर्ग जो ब्रह्मलोक में बना है वह भी नष्ट हो जायेगा। गीता जी के आठवें अध्याय का सोलहवाँ श्लोक बताता है। स्वामी रामानन्द जी तो विद्वान पुरुष थे उनको तो श्लोक उंगलियों पर याद थे। स्वामी रामानन्द जी ने कहा आप ठीक कहते हो, ऐसा ही लिखा है। कबीर साहेब ने कहा बताओ जी फिर कहाँ रहोगे ? न आपके श्री कृष्ण मुरारी ही रहेंगे। ये ब्रह्मा लोक, विष्णु लोक आदि के सर्व प्राणी तथा श्री विष्णु जी आदि तीनों देवता भी नष्ट होंगे। फिर आप कहाँ रहोगे गुरुदेव? फिर रामानन्द जी विचार करने पर विवश हो गए। परमेश्वर कबीर साहेब जी ने पूछा स्वामी जी गीता जी का ज्ञान किसने बोला? स्वामी रामानन्द जी ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण जी ने। परमेश्वर कबीर साहेब जी ने कहा स्वामी जी संक्षिप्त महाभारत द्वितीय खण्ड (पृष्ठ 1531 पुराने वाला तथा 667 नए वाला) में लिखा है कि श्री कृष्ण जी तो कह रहे हैं कि अर्जुन मुझे अब वह गीता वाला ज्ञान याद नहीं है, मैं दोबारा वही ज्ञान नहीं सुना सकता। परमेश्वर कबीर साहेब जी ने सर्व प्रमाण बताऐं।
गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म)कह रहा है कि -
ओम् इति एकाक्षरम् ब्रह्म, व्याहरन् माम् अनुस्मरन्,
यः प्रयाति त्यजन् देहम् सः याति परमाम् गतिम् ।। 13।।
इसका शब्दार्थ है कि गीता बोलने वाला ब्रह्म अर्थात् काल कह रहा है कि (माम् ब्रह्म) मुझ ब्रह्म का तो (इति)यह (ओम् एकाक्षरम्)ओम्/¬ एक अक्षर है (व्याहरन्)उच्चारण करके (अनुस्मरन्)स्मरण करने का (यः)जो साधक (त्यजन् देहम्)शरीर त्यागने तक अर्थात् अन्तिम स्वांस तक (प्रयाति)स्मरण साधना करता है (सः)वह साधक ही मेरे वाली (परमाम् गतिम्)परमगति को (याति)प्राप्त होता है।
भावार्थ है कि श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत् प्रवेश करके ब्रह्म अर्थात् हजार भुजा वाला ज्योति निरंजन काल कह रहा है कि मुझ ब्रह्म की साधना केवल एक ओम् (¬)नाम से मृत्यु पर्यन्त करने वाले साधक को मुझ से मिलने वाला लाभ प्राप्त होता है, अन्य कोई मन्त्रा मेरी भक्ति का नहीं है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 5ए 7 तथा 13 में गीता ज्ञान दाता ने अपने विषय में साधना करने को बताया है कि जो मेरी साधना ओम् (¬)नाम का स्मरण अन्तिम स्वांस तक करता है, वह मुझे ही प्राप्त होगा। इसलिए तू युद्ध भी कर तथा मेरा ओ3म् नाम का स्मरण भी कर क्योंकि युद्ध हल्ला (ऊँचे स्वर से शोर)करके किया जाता है, इसलिए कहा है कि ओम् (¬)नाम का उच्चारण (ऊँचे स्वर में शोर)करता हुआ स्मरण भी कर तथा युद्ध भी कर।
फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 6 में कहा है कि यह विधान है कि जो जिस प्रभु का अंत समय में स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है वह उसी को प्राप्त होता है। गीता ज्ञान दाता प्रभु गीता अध्याय 8 श्लोक 8 से 10 तक तीनों श्लोकों में ब्रह्म से अन्य पूर्ण परमात्मा (परम दिव्य पुरुष परमेश्वर अर्थात् पूर्णब्रह्म)के विषय में कह रहा है कि यदि कोई उसकी साधना करता हुआ शरीर त्यागता है तो उसी पूर्ण परमात्मा (परमेश्वर)को ही प्राप्त करता है। उसी से पूर्ण मोक्ष तथा सत्यलोक प्राप्ति तथा परम शान्ति प्राप्त होती है। इसलिए उस परमेश्वर की शरण में जा (गीता अध्याय 18 श्लोक 62-66 तथा अध्याय 15 श्लोक 4)मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म)भी इसी की शरण हूँ।
रामानन्द जी ने सर्व प्रमाणों को आँखों देखकर दांतों तले अंगुली दबाई तथा सत्य को स्वीकार किया। कहा कि बच्चा बात तो शास्त्रों की तूं सही बता रहा है जो सत्य है। हमारे को किसी ने ऐसा ज्ञान ही नहीं दिया, हम क्या करें? कबीर साहेब ने बताया कि पवित्रा गीता जी में ही लिखा है। आठवें अध्याय का 8,9 और 10 श्लोक तथा अध्याय नं. 18 का श्लोक नं. 62 पढ़कर देखो।
पवित्र गीता जी व पवित्रा वेदों को बोलने वाला ब्रह्म (काल)कह रहा है कि उस परमात्मा की शरण में जा अर्जुन तेरा फिर मरण नहीं होगा। उसके लिए (अध्याय नं. 4 का श्लोक नं. 34)उन संतों को खोजो जो उस परमात्मा के परम तत्व को जानने वाले हों। उनको दण्डवत् प्रणाम करो, विनम्र व निष्कपट भाव से उनका सत्कार करो। जब वे तत्वदर्शी सन्त प्रसन्न हो जाऐं फिर उनसे दीक्षा (नाम)माँगों। फिर तेरा पुनर्जन्म व मरण नहीं होगा। पवित्र गीता अध्याय 15 मंत्र 1 से 4 में कहा है कि यह उल्टा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष है, ऊपर को मूल तो आदि पुरुष अर्थात् सनातन परमात्मा है, नीचे को तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव)रूपी शाखायें हैं। इस पूर्ण संसार रूपी वृक्ष अर्थात् पूर्ण सृष्टी रचना को मैं (ब्रह्म-काल)नहीं जानता। यहाँ विचारकाल में अर्थात् गीता जी के ज्ञान में आपको मैं पूर्ण ज्ञान नहीं दे सकता। उसके लिए किसी तत्वदर्शी संत की खोज कर।(गीता अध्याय 4 मंत्रा 34)फिर वह आपको सर्व सृष्टी की रचना का ज्ञान तथा सर्व प्रभुओं की स्थिति सही बताएगा। उसके पश्चात् उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए जिसमें गए साधक का फिर जन्म-मृत्यु नहीं होता अर्थात् पूर्ण मोक्ष हो जाता है। जिस परमेश्वर ने संसार रूपी वृक्ष अर्थात् सर्व ब्रह्मण्डों की रचना की है मैं (ब्रह्म-काल)भी उस परमेश्वर की शरण में हूँ, इसलिए उस परमेश्वर की पूजा करो। स्वामी रामानन्द जी बोले कि लिखा तो ऐसा ही है बच्चा, बिल्कुल यों ही है। लेकिन यह सतलोक न तो किसी से सुना है जिस कारण अब मेरा मन विश्वास नहीं कर रहा है कि वह सत्य होगा। कबीर साहेब ने पूछा कि आप कैसे साधना करते हो? स्वामी रामानन्द जी बोले कि मैंने सारे शरीर को साध रखा है। योग अभ्यास के साथ मैं अन्दर कमलों में से गुजर कर त्रिकुटी (त्रिवैणी) तक पहुँच जाता हूँ। कबीर साहेब बोले कि आप एक बार त्रिवैणी तक पहुँचो। जब रामानन्द जी समाधिस्थ हुए (क्योंकि उनका तो प्रतिदिन का अभ्यास था)त्रिवैणी पर जाकर तीन रास्ते हो जाते हैं। प्रत्येक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्मलोक में प्रवेश करते ही तीन रास्ते हो जाते हैं। इसी प्रकार बीस ब्रह्मण्डों के पार इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में भी यही व्यवस्था है। एक रास्ता सामने ब्रह्मलोक में बने तीन गुप्त स्थानों को जाता है, जहाँ पर ज्योति निरंजन तीन रूप बना कर रहता है, सामने का ब्रह्मरंध्र तुम्हारे इस नाम से नहीं खुलेगा। यह ब्रह्मरंध्र भी सतनाम से खुलेगा। कबीर साहेब ने स्वांस के द्वारा अपना सतनाम उच्चारण किया, सामने का द्वार खुल गया। कबीर साहेब ने कहा कि अब आपको काल भगवान दिखाता हूँ जिसको आप निराकार कहते हो। जो गीता में कहता है कि मैं सबको खाऊँगा। अर्जुन! मैं कभी किसी को दर्शन नहीं देता, मैं कभी किसी के सामने प्रत्यक्ष नहीं होता। कबीर साहेब ने कहा कि अब आप के समक्ष उस काल को दिखाता हूँ। पहले तो एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्मलोक में गुप्त स्थानों पर दिखाया ब्रह्मा-विष्णु व शिव रूप धारण किए था। फिर ब्रह्मलोक को पार करने के द्वार से निकल कर इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में ले गये। ब्रह्मलोक से आगे जाने वाले रास्ते को भी जो जटा कुण्डली सरोवर के ऊपर है, अपनी नजरों में रखता है कि कोई निकल न जाए। इक्कीस ब्रह्मण्ड का जो अन्तिम लोक आता है वह काल-ब्रह्म (क्षर पुरुष)का अपना स्थान है। वहाँ पर वह उसी भयंकर रूप में बैठा है, जो इसका वास्तविक रूप है। कबीर साहेब ने कहा कि देखो वह बैठा तुम्हारा निराकार भगवान, जिसको तुम निराकार कहते हो। (क्योंकि योगियों ने वेदों के आधार पर ओ3म् नाम से साधनाएँ की, परमात्मा तो मिला नहीं, सिद्धियाँ आ गई, स्वर्ग चले गए, महास्वर्ग गए, फिर पशु बन गए। इसलिए प्रभु को सभी ने निराकार मान रखा है कि वह दिखाई नहीं देता और वेदों में लिखा है कि भगवान आकार में है।)जब काल के पास पहुँचे तो साहेब ने अपना सारनाम के साथ सतनाम उच्चारण किया। उसी समय काल का सिर नीचे झुक गया। काल के सिर के ऊपर वह द्वार है जहाँ से सतलोक जाया जाता है तथा परब्रह्म के लोक में प्रवेश होते हैं। उसके बाद एक भँवर गुफा शुरू होती है। (एक भँवर गुफा काल के लोक में भी है।)काल के सिर पर पैर रखकर कबीर जी के हंस (निर्विकारी साधक) ऊपर जाते हैं। यह काल उसकी पौड़ी का काम करता है। परब्रह्म के लोक को पार करके कबीर साहेब श्री रामानन्द जी की आत्मा को सतलोक ले गए। (वहाँ पर भी एक भंवर गुफा है1⁄2। सतलोक में जाकर श्री रामानन्द जी ने देखा कि कबीर साहिब (कविर्देव) अपने वास्तविक रूप में बैठे हैं। वहाँ पर कबीर साहेब का इतना तेज है कि एक रूमकूप में जैसे करोड़ों सूर्य और करोड़ों चन्द्रमा की जो मिली-जुली रोशनी (परन्तु गर्मी न हो) से भी अधिक है। कबीर साहेब वहाँ जा कर अपने ही दूसरे स्वरूप के ऊपर चँवर करने लगे। श्री रामानन्द जी ने सोचा कि भगवान तो यह है जो सिंहासन पर विराजमान है और यह कबीर यहाँ का कोई सेवक (गण) होगा, परन्तु लोक सबसे न्यारा है। परमात्मा का बहुत तेज है। ऐसा सोच ही रहे थे, इतने में परमात्मा का तेजोमय रूप सिंहासन से उठा और पाँच वर्षिय बच्चे के रूप में परमेश्वर कबीर जी तख्त पर विराजमान हो गए। परमेश्वर का जो वास्तविक तेजोमय रूप नजर आ रहा था वह बालक रूप कबीर साहेब पर चँवर करने लगा। उसके बाद कबीर साहेब का दूसरा तेजोमय रूप बालक वाले रूप कबीर साहेब में समा गया और अकेले पाँच वर्षीय बच्चे के रूप में कबीर परमेश्वर तख्त पर विराजमान थे, चँवर स्वयं चल रहा था। इतने में रामानन्द जी की आत्मा को वापिस शरीर में भेज दिया। उनकी समाधि टूटी। सामने देखा कबीर साहेब पाँच वर्ष के बच्चे के शरीर में बैठे हैं। तब स्वामी रामानन्द जी ने कहा कि:-
तहां वहाँ चित चक्रित भया, देखि फजल दरबार। गरीबदास सिजदा किया, हम पाये दीदार।।523।।
तुम स्वामी मैं बाल बुद्धि, भर्म कर्म किये नाश। गरीबदास निज ब्रह्म तुम, हमरै दृढ़ विश्वास।।524।।
सुन्न-बेसुन्न सैं तुम परै, उरैं से हमरै तीर। गरीबदास सरबंगमें, अविगत पुरूष कबीर।।525।।
कोटि कोटि सिजदे करैं, कोटि कोटि प्रणाम। गरीबदास अनहद अधर, हम परसैं तुम धाम।।526।।
बोलत रामानंदजी, सुन कबीर करतार। गरीबदास सब रूपमें, तुमहीं बोलन हार।।556।।
तुम साहिब तुम संत हौ, तुम सतगुरु तुम हंस। गरीबदास तुम रूप बिन और न दूजा अंस।।557।।
मैं भगता मुक्ता भया, किया कर्म कुन्द नाश। गरीबदास अविगत मिले, मेटी मन की बास।।558।।
दोहूँ ठौर है एक तूं, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणैं, उतरे हैं मघ जोय।।559।।
बोलत रामानन्द जी, सुन कबीर करतार। गरीबदास सब रूप में, तू ही बोलनहार।।
रामानन्द जी ने कहा कि हे परमेश्वर! हे कबीर परमात्मा! हे कबीर करतार (सर्व सृष्टी रचनहार)! आप ही सर्वव्यापक पूर्ण परमेश्वर हो।
दहूँ ठोड़ है एक तूं, भया एक से दो। गरीबदास हम कारणे, आए हो मग जो।।
हे परमेश्वर कबीर ! आप दोनों जगह सत्यलोक में तथा मेरे समक्ष आप ही हो और एक से दो रूप बनाकर हम तुच्छ जीवों के लिए यहाँ पर आए हो।
मैं भक्ता मुक्ता भया, कर्म कुण्द भये नाश। गरीबदास अविगत मिले, मिट गई मन की बांस।।
रामानन्द जी 104 वर्षीय महापुरुष और पाँच वर्षीय बच्चे कबीर परमेश्वर को कह रहे हैं कि मैं आपका दास मुक्त हो गया और मेरे मन की भ्रमणा-भटकणा समाप्त हो गई। मुझे परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का दर्शन हो गया। हे पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब (कविर्देव)! चारों पवित्रा वेद व पवित्रा गीता जी आप ही का गुणगान कर रहे हैं। स्वयं कविर्देव (कबीर परमेश्वर)ने भी कहा है कि:-
बेद हमारा भेद है, मैं ना बेदन के मांही। जिस बेद से मैं मिलूं, बेद जानते नाहीं।
भावार्थ है कि चारों पवित्रा वेदों में ज्ञान पूर्ण परमात्मा का ही है, परन्तु पूजा की विधि केवल ब्रह्म (ज्योति निरंजन)तक की ही है। परमेश्वर कबीर (कविर्देव)की पूजा विधि के ज्ञान व तत्वज्ञान के लिए पवित्रा वेदों तथा पवित्रा गीता जी में कहा है कि उसे तो कोई तत्वदर्शी संत ही बता सकता है, जो स्वयं ही परमेश्वर होता है या कोई उसका भेजा हुआ वास्तविक प्रतिनिधि होता है। उससे उपदेश प्राप्त करके पूर्ण मोक्ष व परम शान्ति प्राप्त होती है।